बनासकांठा, गुजरात: सड़कों पर बहता दूध, किसानों का दर्द और ‘विकास’ की हकीकत
बनासकांठा, गुजरात: गुजरात के बनासकांठा से सामने आ रही तस्वीरें विचलित करने वाली हैं, जहां किसान अपनी मेहनत से उपजाया दूध सड़कों पर बहाने को मजबूर हैं। उनका आरोप है कि मोदी सरकार उन्हें दूध का उचित मूल्य देने से इनकार कर रही है, जिससे उनकी लागत भी नहीं निकल पा रही है। यह स्थिति न केवल किसानों के लिए आर्थिक संकट पैदा कर रही है, बल्कि देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ कहे जाने वाले अन्नदाता के प्रति सरकार की कथित उदासीनता पर भी गंभीर सवाल खड़े कर रही है।
दूध बहाने को क्यों मजबूर किसान?
बनासकांठा के किसानों का कहना है कि उन्हें दूध के लिए इतना कम दाम मिल रहा है कि पशुपालन का खर्च निकालना भी मुश्किल हो गया है। पशुओं के चारे, स्वास्थ्य देखभाल और अन्य लागतों में लगातार वृद्धि हो रही है, लेकिन दूध खरीद मूल्य में अपेक्षित वृद्धि नहीं हो रही है। परिणाम स्वरूप, जब उन्हें अपने उत्पाद का उचित मूल्य नहीं मिलता, तो मजबूरी में वे दूध को सड़कों पर फेंकने जैसा कठोर कदम उठाने को विवश हो जाते हैं। यह विरोध प्रदर्शन उनकी हताशा और अनदेखी की भावना का प्रतीक है।
हाल ही में गुजरात के साबरकांठा जिले में भी दूध के मूल्य में बढ़ोतरी की मांग को लेकर किसानों का विरोध प्रदर्शन हिंसक हो गया था, जहां साबर डेयरी परिसर के बाहर प्रदर्शनकारियों और पुलिस के बीच तीखी झड़प हुई थी। किसानों की मांग थी कि उन्हें दूध का उचित मूल्य दिया जाए और डेयरी खरीद मूल्य में तत्काल वृद्धि की जाए। इन घटनाओं से यह स्पष्ट होता है कि गुजरात के डेयरी किसान लंबे समय से मूल्य निर्धारण की समस्या से जूझ रहे हैं।
भारत दुनिया का सबसे बड़ा दूध उत्पादक देश है, और डेयरी क्षेत्र लाखों ग्रामीण परिवारों की आजीविका का मुख्य आधार है। हालांकि, यह क्षेत्र कई चुनौतियों का सामना करता है, जिनमें पशुओं की कम उत्पादकता, उच्च उत्पादन लागत, चारे की कमी, पशु चिकित्सा सेवाओं का अभाव और सबसे महत्वपूर्ण, दूध के लाभकारी मूल्य का न मिलना शामिल है।
किसान अक्सर दुग्ध सहकारी समितियों या निजी डेयरी कंपनियों को दूध बेचते हैं, और खरीद मूल्य इन संस्थाओं द्वारा निर्धारित किए जाते हैं। किसानों का आरोप है कि ये मूल्य उनकी बढ़ती लागत के अनुपात में नहीं बढ़ते, जिससे उन्हें भारी नुकसान उठाना पड़ता है। ऐसे में, सरकार की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह मूल्य निर्धारण तंत्र की समीक्षा करे और यह सुनिश्चित करे कि किसानों को उनके उत्पाद का उचित और लाभकारी मूल्य मिले।
जब एक किसान का दूध आपके घर तक पहुंचने के बजाय सड़क पर बर्बाद हो जाता है, तो यह विकास नहीं, बल्कि एक राष्ट्र का अपनी ही रीढ़ की हड्डी को विफल करना है। किसानों की दुर्दशा को अनदेखा करना न केवल उनकी आर्थिक स्थिति को खराब करता है, बल्कि खाद्य सुरक्षा और ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर भी नकारात्मक प्रभाव डालता है।
जरूरत है कि सरकार किसानों की समस्याओं को गंभीरता से ले और उनके लिए लाभकारी मूल्य सुनिश्चित करने के लिए ठोस नीतियां बनाए। केवल वादे या योजनाएं पर्याप्त नहीं हैं, बल्कि उनका जमीनी स्तर पर प्रभावी क्रियान्वयन आवश्यक है। किसानों को उनका हक मिलने पर ही सही मायने में देश का विकास संभव होगा और ‘विकास’ का नारा सार्थक सिद्ध होगा।
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